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Rehta Hoon Kiraye Ke Ghar Main



















रहता हूं किराये के घर में...
रोज़ सांसों को बेच कर किराया चूकाता हूं...
मेरी औकात है बस मिट्टी जितनी...
बात मैं महल मिनारों की कर जाता हूं...
जल जायेगा ये मेरा घर इक दिन...
फिर भी इसकी खूबसूरती पर इतराता हूं...
खुद के सहारे मैं श्मशान तक भी ना जा सकूंगा...
फिर ज़माने को क्यों दुश्मन बनाता हूं...
कितना नमक हराम हो गया हूं मैं इस ज़माने की आबो हवा में...
जिसका घर है उसी मालिक को मैं रोज़ दिन भूल जाता हूं...
लकड़ी का जनाज़ा ही मेरे काम आयेगा उस दिन...
फिर भी खुद को गाड़ियों का शौकीन बतलाता हूं...
कहां जाऊंगा मरने के बाद इसका भी पता नही...
और मैं पगला पल भर की देह को मुकम्मल बतलाता हूं.

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