गहिनीनाथ के गुरु गोरखनाथ थे। मान्यता है कि एक दिन गुरु गोरखनाथ अपने गुरु मछिन्दर नाथ के साथ तालाब के किनारे एक एकांत जगह प्रवास कर रहे थे, जहां पास ही में एक गांव था। मछिंदरनाथ ने कहा कि मैं तनिक भिक्षा लेकर आता हूं तब तक तुम संजीवनी विद्या के बारे में तुमने आज तक जो सुना है ना उसकी सिद्धि का मंत्र जपो। यह एकांत में ही सिद्ध होती है।
बैलगाड़ी बनाने तक वो सफल हो गए, लेकिन बैलगाड़ी चलाने वाला मनुष्य का पुतला वे नहीं बना पा रहे थे। किसी लड़के ने सोचा कि ये जो आंख बंद किए बाबा हैं इन्हीं से कहें- बाबा-बाबा हमको गाड़ी वाला बनाके दीजिए। गुरु गोरखनाथ ने आंखें खोलीं और कहा कि अभी हमारा ध्यान भंग न करो फिर कभी देखेंगे। लेकिन वे बच्चे नहीं माने और फिर कहने लगे। बच्चों के आग्रह के चलते गोरखनाथ ने कहा- लाओ बेटे बना देता हूं।
उन्होंने जप संजीवनी जप करते हुए ही मिट्टी उठाई और पुतला बनाने लगे। संजीवनी मंत्र चल रहा है तो जो पुतला बनाना था बैलगाड़ी वाला वो पुतला बनाते गए। बनाते-बनाते नन्हा-सा उसके अंग-प्रत्यंग बनते गए और मंत्र प्रभाव से वो पुतला सजीव होने लगा उसमें जान आ गई। जब पूरा हुआ तो वो पुतला बोला प्रणाम। गुरु गोरखनाथजी चकित रह गए। बच्चे घबराए कि ये पुतला कैसे जी उठा? वह पुतला सजीव होकर आसन लगाके बैठ गया। बच्चे तो चिल्लाते हुए भागे। भूत-भूत मिट्टी में से भूत बन गया।
ब्राह्मण का नाम था मधुमय और उनकी पत्नी का नाम था गंगा। गांव वालों ने कहा कि आपकी कृपा से इन्हें संतान मिल सकती है। गोरखनाथ और मछिन्द्रनाथ भी समझ गए। उन्होंने कहा तुम इस बालक को क्यों नहीं गोद ले लेते। कुछ सोच-विचार के बाद दोनों ने उक्त बालक को गोद लेना स्वीकार कर लिया।यही बालक गहिनीनाथ योगी के नाम से सुप्रसिद्ध हुआ। यह कथा है कनक गांव की जहां आज भी इस कथा को याद किया जाता है। गहिनीनाथ की समाधि महाराष्ट्र के चिंचोली गांव में है, जो तहसील पटोदा और जिला बीड़ के अंतर्गत आता है। मुसलमान इसे गैबीपीर कहते हैं।
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