संत कबीरदासजी का जब काशी में वास था,तो एक बार एक राजा बहुत – सा धन लेकर उनके पास आया | कबीरदासजी ने देखा तो चुपचाप बाहर निकल गए | पर उनके पुत्र कमाल उससे मिले और राजा की अध्यात्मिक्ता देखकर उन्होंने गुरुमंत्र देकर उसे शिष्य भी बना डाला| राजा ने गुरुदक्षिणा के रूप में साथ में लाया धन उन्हें दे दिया | कबीरदासजी को जब यह बात मालूम हुई, तो उन्हें बड़ा दुःख हुआ और उन्होंने कमाल को धिक्कारा, किन्तु कमाल पर उसका कुछ भी असर नही हुआ| उन्होंने कबीर जी से कहा ,"इस प्रकार धन लेने में कोई हानि नही है |मैंने धन लेकर 'रामनाम' को बेचा तो नही है |" वैसे भी 'रामनाम' का कोई 'मोजो'(मूल्य) नही है| हाँ, इस धन का स्वयं उपजोग नही करूँगा, उसे दान में ही दूँगा, अतः मैंने कोई गलत काम नही किया है|
कबीर दास जी ने कहा ―
कबीर दास जी ने कहा ―
कबहु तो राम के नाम को,मोजो कछुवै आहि |
तो मैं बेचा होइहै , मोहि बतावहु ताहि ||
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