एक बार एक राजा के राज्य में एक पहुंचे हुए महात्मा जी का आगमन हुआ. महात्मा जी की कीर्ति राजा ने सुन रखी थी इसलिए पूरे राजसी अंदाज़ में हीरे-जवाहरात और उत्तम भोग से भरे भेंट के कई थाल लिए हुए वह उनके दर्शन को पहुंचा.
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महात्मा जी उस समय कुछ लोगों से बातचीत कर रहे थे. उन्होंने राजा को संकेत में बैठने का निर्देश दिया. महात्मा जी सबसे विदा लेकर राजा के पास पहुंचे तो राजा ने भेंट के थाल महात्मा जी की ओर बढ़ा दिए.
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महात्मा जी थोड़े से मुस्कुराए. हीरे-जवाहरातों को भरे थालों को उन्होंने छुआ तक नहीं. हां बदले में एक सूखी रोटी अपने पास से निकाली और राजा को देकर कहा- इसे खा लीजिए.
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राजा ने सूखी रोटी देखी तो उसका मन कुछ बिदका पर लगा कि महात्मा का दिया प्रसाद है, खा ही लेना चाहिए. उसने रोटी खाई पर रोटी सख्त थी. राजा से चबायी नहीं गई.
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तब महात्मा जी ने कहा- जैसे आपकी दी हुई वस्तु मेरे काम की नहीं है उसी तरह मेरी दी हुई वस्तु आपके काम की नहीं. हमें वही लेना चाहिए जो हमारे काम का हो. अपने काम का श्रेय भी नहीं लेना चाहिए.
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बिना आवश्यकता लिया किसी से लिया हुआ एक कंकड-पत्थर भी बहुत भारी चट्टान के बोझ जैसा हो जाता है. परमार्थ के लिए लिया गया विपुल धन भी फूलों के हार जैसा है जिसे धारण करना चाहिए.
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मुझे यदि किसी धार्मिक प्रयोजन के लिए धन की आवश्यकता होगी तो मैं स्वयं याचक की तरह आपके पास आउंगा. उस समय मैं आवश्यकता अनुसार दान स्वीकार करूंगा परंतु आज तो यह मेरे लिए बोझ जैसा ही है.
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राजा इन बातों को सुनकर काफी प्रभावित हुआ. राजा जब जाने को हुआ तो महात्मा जी उसे दरवाजे तक छोड़ने आए.
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राजा ने पूछा- महात्मन मैं जब आया था तब आपने मेरी ओर देखा तक नहीं था, अब बाहर तक छोड़ने आ रहे हैं. ऐसा परिवर्तन क्यों ?
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महात्मा जी बोले- बेटा जब तुम आए थे तब तुम्हारे साथ अहंकार का बोझ था. अब तो चोला तुमने उतार दिया है तुम इंसान बन गए हो. हम ऐसे सद्गुणों का आदर करते हैं. साधु मान-अपमान से ऊपर होता है. उसे तो सदगुण प्रिय हैं.
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राजा नतमस्तक हो गया. कितनी बड़ी बात कही महात्मा जी ने. हम अनावश्यक जीवन में लोगों के उपकार का बोझ लेते रहते हैं. हम समझते हैं कि यह कोई कार्य थोड़े ही था. यकीन मानिए हर उपकार एक बोझ जैसा ही होता है जिसे कभी न कभी चुकाना ही होगा.
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किसी दीन-दुखी या सचमुच किसी जरूरत मंद को देखें तो आगे बढ़कर सहायता का भाव रखें. संभव है आपको कुछ पुराने अनुभव बुरे रहे हों पर न जाने किस अनुभव के लिए ईश्वर समय आ गए हो परीक्षा के लिए.
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धर्म में आस्था रखें. धर्मकार्यों में आस्था रखें. किसी अन्य धर्म का अनादर करना, उसकी अवहेलना करना धर्म नहीं. सनातन तो जीवन जीने की आदर्श कला है. वसुधैव कुटुंबकम्.
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