छोटी उम्र में ही एक बालक की नेत्रज्योति चली गयी ।सारा परिवार दुखी हो गया । बालक सोचने लगा, 'हाय !
मेरा जन्म लेना कितने लोगों के लिए दुखदायी हो गया है । '
बालक जिज्ञासु प्रकृति का था । उसने संसार के नश्वर सुख-भोगों में दुःख -ही- दुःख देखा ।उसके मन में प्रश्न उठा, 'क्या ऐसा भी कोई सुख होता है जिसमें दुःख शामिल न हो ?'
एक दिन उसके पिता जी किसी से बात कर रहे थे । बातचीत के सिलसिले में उन्होंने कहा :'ऐसा सुख साधु-संतों के पास होता है जिसमें दु:ख नहीं रहता । " यह बात बालक ने सुन ली और उसे जीवन की राह मिल गयी । उसने निश्चय कर लिया कि 'मैं अवश्य साधु बनुगा।'
वह बालक एक संत के पास गया, बोला : "मुझे भगवान के रास्ते लगना है, सूरदास हो गया हूँ ।"
संत बोले : "ठीक है, बन जाओ साधु ।"
बालक बोला : "मानो, साधु बन गया
फिर ?"
"भजन करो ।"
"महाराज ! भजन करें तो किसका करे"
"भगवान का करो ।"
"भगवान का भजन कैसे करें ?"
"बेटा ! 'राम राम' करो ।"
बालक ने कहा : ‘ 'उसमें मेरी श्रद्धा नहीं ।" महाराज क्षणभर शांत हुए, बोले : "तुम
भगवान को मानते हो कि नहीं मानते हो ?" बालक : "भगवान को तो मानता हूँ।"
महाराज खुश हो गये, बोले : "यार ! उसी के हो जाओ न जिसके हो । रामनाम पर श्रद्धा नहीं है तो 'मैं उसका हूँ, वह मेरा है' - इतना ही तो मानना है, बस ! चाहे फिर उसको शिव मानो, राम मानो, आत्मा मानो, सर्जनहार मानो... तुम उसीके होकर चुप बैठा करो ।"
और उस 'चुप साधन' ने उनको ऐसी महायोग्यता में ला दिया कि वही सूरदास बालक संत शरणानंदजी महाराज के नास से प्रसिद्ध हुए और उनकी वाणी आज बड़े-बड़े संत भी पढते हैं ।
हम मंत्र का, गुरु का, संत-महापुरुषों का, भगवान का आदर करते हैं तो हम ही आदरणीय हो जाते हैं । तुम भी निश्चय करो कि 'मुझे भी परमेश्वर का साक्षात्कार करना है । 'तो भगवत्कृपा से यह ध्येय भी तुम हासिल का सकते हो । तुम्हारे भीतर परमात्मा की असीम शक्तियाँ छुपी हुई हैं ।
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