साहिब बंदगी के सद्गुरु श्री मधुपरमहंस जी महाराज ने पूर्णिमा के अवसर पर आज संत आश्रम, राँजड़ी (सांबा) में अपने प्रवचनों की अमृत वर्षा से संगत को निहाल करते हुए कहा कि सद्गुरु की भक्ति में आना आसान नहीं है। इसका कारण है कि यह भक्ति सबसे अलग है। आप किसी को समझाने का प्रयास करेंगे, अपने रिश्तेदारों को, मिलने वालों को भक्ति में जोडऩा चाहेंगे तो बहुत कठिन होगा। बहुत कठिन है यह भक्ति समझाना। क्योंकि हम एक मुद्दे पर बात कर रहे हैं। साहिब बोल रहे हैं कि संसार में जितने भी लोग आए, सबने निरंजन की भक्ति की, परम पुरुष की भक्ति कोई समझ नहीं पाया। जो हमारे पूर्वज थे, सब माननीय थे। पर सब निराकार, निरंजन तक की बात किये। आगे का भेद कोई नहीं जान पाया। जितने भी धर्म हैं, सब निराकार तक की बात कर रहे हैं।
ये सब निरंजन तक बोल रहे हैं। किसी का धर्मशास्त्र खराब नहीं है। मूलत: धर्म शास्त्र के दो लक्ष्य हैं—जीवन पद्धति और परमात्म तत्व। कोई भी धर्म शास्त्र पहले जीवन जीना सिखाता है। जीवन पद्धति में पाप और पुण्य क्या हैं, कैसे जीवन बिताएँ, यह है। दूसरा परम तत्व के विषय में बताता है।
वेदों में 1 लाख श्लोक हैं, जिनमें से 80 हजार केवल कर्म काण्ड के हैं, जिनमें कृत्य, अकृत्य, पाप, पुण्य आदि के विषय में बताया गया है। केवल 4 हजार श्लोक तत्व की प्राप्ति के विषय में हैं। यानी धर्म सबसे पहले हमें आचार संहिता सिखाता है, जीवन का तौर-तरीका सिखाता है। तत्व की प्राप्ति बाद में। पहले हमारे पूर्वजों को देखें तो पाप कर्म नहीं कररहे थे। वो पाप से डर रहे थे, पर आज इंसान में पाप से भय समाप्त हो गया है। भक्ति का वातावरण तो दिखाई दे रहा है, पर लोगों में भक्ति का रंग नजर नहीं आ रहा है, उनमें बदलाव दिखाई नहीं दे रहा है। यानी आज हम पहले लक्ष्य से भी दूर हो चुके हैं। फिर वेद निराकार की बात कर रहा है। बाईबल भी निराकार की बात कर रही है। इस्लाम भी बेचूना खुदा कह रहा है।
साहिब वेदों के परे बोल रहे हैं। चार वेदों से 6 शास्त्र बने। अलग अलग ऋषियों ने वेदों का सरलीकरण करते हुए 6 शास्त्रों की रचना की। फिर उन्हीं से आगे 18 पुराण, 128 उपनिषद् बने। इसलिए इनमें भी आचार संहिता आई। इनमें भी निराकार की बात आई। साहिब यहाँ बड़े चौंकाने वाली बात कह रहे हैं कि निराकार ही निरंजन है। यानी दुनिया भक्ति भी ठीक नहीं कर रही है।
दो भक्तियाँ देख रहे हैं—सगुण और निर्गुण। शुभ कर्म सबमें है। दान-पुण्य का महात्म है, गुरु गृहस्थ है। वो कह रहे हैं कि चार धाम की यात्रा करो, दान, पुण्य करो, शुभ कर्म करो, स्वर्गादि की प्राप्ति करो। इसमें परम तत्व की प्राप्ति कर ही नहीं सकता है। फिर एक भक्ति और है—निर्गुण। कुछ यह भी कह रहे हैं कि साहिब निर्गुण उपासक थे। नहीं, यह पंच मुद्राओं के गिर्द है निर्गुण भक्ति और संतों की सत्य भक्ति ऊपर की है। हमारा मुद्दा सत्य पुरुष की सत्य भक्ति का संदेश संसार को देना है। इसमें सब जंजालों से ऊपर उठना पड़ता है। इसलिए इस भक्ति में आना आसान नहीं है।
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