फरीद जी के जीवन के विषय में एक पुरानी पुस्तक से यह ज्ञान मिलता है कि वह जितने
बड़े आलम,ब्रहमज्ञानी और नाम की कमाई वाले फकीर थे,उतना ही सादा जीवन व्यतीत करते
थे। उनकी सादगी एँव त्याग की मिसाल कम ही मिलती है।
फरीद जी के जन्म नगर खोतवाल (जिला मुल्तान)में आप की शोभा सुनकर उस समय के प्रसिद्ध फकीर शेख जलाल-उ-दीन तबरेजी आपको मिलने गए। फरीद जी फटे पुराने वस्त्रों में सफ पर बैठे बँदगी कर रहे थे। तबरेजी जी यह देखकर हैरान हुए।
उन्होंने प्रश्न किया–फरीद जी ! आपने ऐसा वेश क्यों धारण किया है?
फरीद जी ने कहा,तबरेजी जी ! शायद मेरे मालिक यानि कि खुदा को यही भेष पसन्द है। वह जैसा देता है,वैसा डाल लेता हूँ,वस्त्र नये हों या पुराने मालिक से प्रेम बना रहना चाहिए
फरीद जी ने ये श्लोक उच्चारण किया -
फरीदा पाड़ि पटोला धज करी कंबलड़ी पहिरेउ ।।जिन्ही वेसी सहु मिलै सेई वेस करेउ ।।
अर्थ:"जीवन का उद्देश्य"तो मालिक को मिलना है,चाहे काली कँबली क्यों न हो। जिस वेश,जिन वस्त्रों में वह परमात्मा मिल जाए,मैं वही वेश धारण कर लूँ।पक्षियों की तरफ देखो वह भी परमात्मा का रूप हैं
फरीदा हउ बलिहारी तिन्ह पंखीआ जंगलि जिन्हा वासु ।।
ककरू चुगनि थलि वसनि रब न छोडनि पासु
अर्थ:पक्षियों का लिबास उनकी"चमड़ी"और"पर"हैं,जँगल में रहते हुए, "बीजकँकर"चुगकर प्रसन्न रहते हैं,परन्तु परमात्मा की याद नहीं भुलाते और ब्रहम समययानि कि अमृत समय में जागकर उस मालिक को याद करते हैं।
फरीद जी जब दिल्ली गए तब भी उन्होंने वस्त्रों पर कोई ध्यान नहीं दिया। बादशाह के जमाई होने के बाद भी वह दुनियावी दिखावे में नहीं पड़ते थे। उन्होंने अपनी पत्नी यानि बादशाह की बेटी को भी सीधे-साधे वस्त्र पहनने के लिए प्रेरित किया और उसने भी उन्हीं में खुश रहना स्वीकार किया।फरीद जी धरती पर एक काली काँबली बिछाकर लेट जाते,अपने मुर्शिद का डण्डा चूमकर सिर पर रख लेते। एक बार उनके सेवक बदर-उ-दीन इसहाक ने अनुरोध किया,"महाराज!आपका शरीर अब कठोर धरती पर लेटने योग्य नहीं रहा,आप बिस्तर पर आराम किया कीजिए।"यह सुनकर फरीद जी ने अपने मालिक यानि परमात्मा की और ध्यान लगाकर इस श्लोक का उच्चारण किया-
फरीदा चिंत खटोला वाणु दुखु बिरहि बिछावण लेफु ।।
एहु हमारा जीवणा तूँ साहिब सचे वेख ।।
अर्थ:परमात्मा से"मेल"कब होगा, "चिँता मेरी चारपाई"और"तकलीफें उस चारपाई की रस्सियाँ"हैं। हे सच्चे मालिक ! तूँ देख ऐसा ही जीवन है।फरीद जी रोजा रखते,सुबह भी कुछ न खाते। जब रोजा छोड़ते तो शरबत पीते,रोटी सदा ज्वार की ही खाते। उन्होंने घोर तपस्या के फलस्वरूप भूख पर काबू कर लिया था और शरीर ऐसा कठोर बना लिया था जो गर्मी और सर्दी से बेअसर था। उनकी आयु 90वर्ष से अधिक हो गई थी पर चेहरे पर नूर चमकता था !!
हम मंगतो पे कितने करम है फरीद के,
सुल्तान बन गये है मंगते फरीद के ||
फरीद जी के जन्म नगर खोतवाल (जिला मुल्तान)में आप की शोभा सुनकर उस समय के प्रसिद्ध फकीर शेख जलाल-उ-दीन तबरेजी आपको मिलने गए। फरीद जी फटे पुराने वस्त्रों में सफ पर बैठे बँदगी कर रहे थे। तबरेजी जी यह देखकर हैरान हुए।
उन्होंने प्रश्न किया–फरीद जी ! आपने ऐसा वेश क्यों धारण किया है?
फरीद जी ने कहा,तबरेजी जी ! शायद मेरे मालिक यानि कि खुदा को यही भेष पसन्द है। वह जैसा देता है,वैसा डाल लेता हूँ,वस्त्र नये हों या पुराने मालिक से प्रेम बना रहना चाहिए
फरीद जी ने ये श्लोक उच्चारण किया -
फरीदा पाड़ि पटोला धज करी कंबलड़ी पहिरेउ ।।जिन्ही वेसी सहु मिलै सेई वेस करेउ ।।
अर्थ:"जीवन का उद्देश्य"तो मालिक को मिलना है,चाहे काली कँबली क्यों न हो। जिस वेश,जिन वस्त्रों में वह परमात्मा मिल जाए,मैं वही वेश धारण कर लूँ।पक्षियों की तरफ देखो वह भी परमात्मा का रूप हैं
फरीदा हउ बलिहारी तिन्ह पंखीआ जंगलि जिन्हा वासु ।।
ककरू चुगनि थलि वसनि रब न छोडनि पासु
अर्थ:पक्षियों का लिबास उनकी"चमड़ी"और"पर"हैं,जँगल में रहते हुए, "बीजकँकर"चुगकर प्रसन्न रहते हैं,परन्तु परमात्मा की याद नहीं भुलाते और ब्रहम समययानि कि अमृत समय में जागकर उस मालिक को याद करते हैं।
फरीद जी जब दिल्ली गए तब भी उन्होंने वस्त्रों पर कोई ध्यान नहीं दिया। बादशाह के जमाई होने के बाद भी वह दुनियावी दिखावे में नहीं पड़ते थे। उन्होंने अपनी पत्नी यानि बादशाह की बेटी को भी सीधे-साधे वस्त्र पहनने के लिए प्रेरित किया और उसने भी उन्हीं में खुश रहना स्वीकार किया।फरीद जी धरती पर एक काली काँबली बिछाकर लेट जाते,अपने मुर्शिद का डण्डा चूमकर सिर पर रख लेते। एक बार उनके सेवक बदर-उ-दीन इसहाक ने अनुरोध किया,"महाराज!आपका शरीर अब कठोर धरती पर लेटने योग्य नहीं रहा,आप बिस्तर पर आराम किया कीजिए।"यह सुनकर फरीद जी ने अपने मालिक यानि परमात्मा की और ध्यान लगाकर इस श्लोक का उच्चारण किया-
फरीदा चिंत खटोला वाणु दुखु बिरहि बिछावण लेफु ।।
एहु हमारा जीवणा तूँ साहिब सचे वेख ।।
अर्थ:परमात्मा से"मेल"कब होगा, "चिँता मेरी चारपाई"और"तकलीफें उस चारपाई की रस्सियाँ"हैं। हे सच्चे मालिक ! तूँ देख ऐसा ही जीवन है।फरीद जी रोजा रखते,सुबह भी कुछ न खाते। जब रोजा छोड़ते तो शरबत पीते,रोटी सदा ज्वार की ही खाते। उन्होंने घोर तपस्या के फलस्वरूप भूख पर काबू कर लिया था और शरीर ऐसा कठोर बना लिया था जो गर्मी और सर्दी से बेअसर था। उनकी आयु 90वर्ष से अधिक हो गई थी पर चेहरे पर नूर चमकता था !!
हम मंगतो पे कितने करम है फरीद के,
सुल्तान बन गये है मंगते फरीद के ||
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