संत कबीर का जन्म संवत 1455 की ज्येष्ठ शुक्ल पूर्णिमा को हुआ था। इसलिए हिन्दू कैलेंडर की इस तिथि पर कबीरदास जयंती मनाई जाती है। इन्हें कबीर साहब या संत कबीर दास भी कहा जाता है। इनके नाम पर कबीरपंथ संप्रदाय प्रचलित है। इस संप्रदाय के लोग इन्हें एक अलौकिक अवतारी पुरुष मानते हैं।
संत कबीर अंधविश्वास, ढोंग, पाखंड और व्यक्ति पूजा के कट्टर विरोधी रहे। संत कबीर आडम्बरों के सख्त विरोधी थे। उन्होंने लोगों को एकता के सूत्र का पाठ पढ़ाया। वे लेखक और कवि थे। उनके दोहे इंसान को जीवन की नई प्रेरणा देते थे। उन्होंने अपने पूरे जीवन काल में मानव को एक समान रहने और सद्भाव बनाने का प्रयास किया। समाज की बुराइयों को खत्म करने में उन्होंने पूरा जीवन मानव सेवा में बीता दिया और अपने जीवन के आखिरी पल तक इसी कोशिश में लगे रहे।
संत कबीर दास ने अपना पूरा जीवन काशी में बिताया लेकिन जीवन के आखिरी समय मगहर चले गए थे। ऐसा उन्होंने मगहर को लेकर समाज में फैले अंधविश्वास को खत्म करने के लिए किया था। मगहर के बारे में कहा जाता था कि यहां मरने वाला व्यक्ति नरक में जाता है। कबीर दास ने इस अंधविश्वास को समाप्त करने के लिए मगहर में ही 1518 में देह त्यागी।
मगहर में संत कबीर की समाधि और मजार दोनों है। कबीरदास जी को हिन्दू और मुस्लिम दोनों ही धर्मों में बराबर का सम्मान मिला था। दोनों संप्रदाय के लोग उन्हें मानते थे। माना जाता है कि मृत्यु के बाद संत कबीर दास के शव को लेकर विवाद हो गया था। हिन्दूओं का कहना था कि अंतिम संस्कार हिन्दू परंपरा से होना चाहिए और मुसलमानों का कहना था मुस्लिम रीति से।
ऐसा माना जाता है कि जब उनके शव से चादर हटाई गई, तब लोगों ने वहां फूलों का ढेर पड़ा देखा। बाद में फूलों को हिन्दुओं और आधे मुसलमानों ने बांट लिया। मुसलमानों ने मुस्लिम रीति से और हिंदुओं ने हिंदू रीति से उन फूलों का अंतिम संस्कार किया।
लेखक प्रशांत भारद्वाज
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