जम्मू कश्मीर की धरा का नाता ऐसे देव महात्माओं के साथ रहा है जिनके आगे देश भर के लोग नत्मस्तक होते है। आज हम आपकों ऐसे ही एक स्थान के बारे में बताने जा रहे हैं, यहां के अन्न का एक दाना खाने वाला भी उल्टे पांव यहां आने को मजबूर हो जाता है। यह स्थान है झिड़ी स्थित बाबा जित्तो और बुआ दाती का। जिन्हें लेकर मान्यता है कि बाबा जित्तों के रक्त से सना अन्न का एक एक दाना जिस खेत में गिरा और पैदा हुआ या किसी पक्षी या मनुष्य ने खाया व बाबा जी के इस स्थान पर आने को मजबूर हो जाता है। तो आईए जानते है क्या है बाबा जित्तो व बुआ दाती के इस स्थान का रहस्य। बाबा जित्तो का असली नाम जितमल है और इनका जन्म 14वीं शताबदी की शुरूआत में हुआ था। बाबा जित्तो कटड़ा (Katra) से दो किलोमीटर दूर आघार (Aghar) गांव के रहने वाले थे उनके पिता नाम रूप चंद और माता का नाम जोजला था।
कहते है कि बाबा जित्तो के माता पिता को कोई संतान नहीं थी लेकिन मां जोजला भक्तिभाव में लीन रहने वाली स्त्री थी। कहते है कि एक बार ऐसा संयोग बना कि भगवान शंकर जोजला की भक्ति से प्रसंन हुए और उसे वर मांगने के लिए कहा तो मां जोजला ने एक पुत्र का वरदान मांगा। भगवान शिव ने उन्हें वरदान दे दिया। समय के साथ बाबा जित्तो बड़े होने लगे और प्रभु भक्ति में मग्न रहने लगे जबकि अपनी विधवा चाची जोंझा के व्यवहार से आहत होकर वो एक दिन घर छोड़कर मां वैष्णा देवी (Vaishno Devi) के दरबार चले गए। अभी वो छोटे बालक ही थे और मां के दरबार में जाकर वो उनकी भक्ति में लीन हो गए। मां वैष्णो देवी ने उन्हें दर्शन दिए और वर मांगने को कहा। लेकिन बाबा जित्तो ने कहा कि वो कोई वर नहीं मांगना चाहते बस इतना चाहते है कि जब भी उन पर कोई विपत्ति आये तो एक बार समरण करने पर मां आप मुझे दर्शन देना। मां ने उनकी इच्छा स्वीकार की और बाबा जित्तो वापिस घर आकर मां की भक्ति में लीन रहने लगे। समय के साथ जब बाब जित्तो बड़े हुए तो उनका विवाह ब्राहम्ण कुल की मायावती से हुआ। लेकिन बाबा जित्तो ने अपनी मां भक्ति को नहीं छोड़ा। इस पर मां वैष्णो देवी ने उन्हें दर्शन किए और कहा कि वो उनसे बहुत प्रसंन्न है अब तो कोई वर मां लो। इस पर भी बाबा जित्तो ने भक्ति का ही वर मांगा। इस पर मां ने कहा कि मैं तेरे घर पुत्री के अंश में पैदा हूंगी लेकिन जब तेरी पूत्री पांच वर्ष की हो जाएगी तो तुझे इस देह का त्याग करना होगा। इसके उपरांत बाबा जित्तो के माता पिता का देहांत हुआ और समय का चक्र आगे बड़ा तो बाबा जित्तो की पत्नी को एक दिन प्रसव पीड़ा होने लगी। लेकिन बाबा जित्तो अकेले होने कारण पत्नी को छोड़ किसी को बुलाने न जा सकें। लेकिन इस बीच उनकी पत्नी ने एक पुत्री को जन्म दिया और उनकी पत्नी प्रभु को प्यारी हो गई। इस पर बाबा जित्तो अपना आपा खोकर रोने लगे। लेकिन अपने दीक्षागुरू की बातों का समरण करते हुए उन्होंने कन्या को उठाया और उसके लालन पालन में जुट गए। उन्होंने इस कन्या नाम गौरी ( बुआ कौड़ी ) रखा। जब गौरी पांच वर्ष की हुई तो बीमार रहने लगी। ऐसे में बाबा जित्तो उन्हें आघार गांव से अपने पालतू कुत्ते व बेटी गौरी ( बुआ कौड़ी ) को लेकर पंजोड़ नामक गांव में आ गए। यह गांव झिड़ी व काना चक्क के बीच में स्थित है। इसी गांव में रूल्ल नाम के लोहार व घग्गी नाम के एक व्यक्ति ने बाबा जी इस स्थान पर बसने में बहुत मदद की। एक दिन बाबा जी ने थोड़ी की भूमि की इच्छा की जिसमें वो खेती करके बेटी का लालन पालन कर सकें। घग्गी उस समय के राजा वीर देव के राज प्रबंधक वीर सिंह का कर्मचारी था। वो उन्हें लेकर वीर सिंह के पास पहुंचा और बाबा जित्तो से मिलकर वीर सिंह खुश हो गए। तो बाबा जी ने उनसे अपने मन की इच्छा जाहिर की तो वीर सिंह ने उन्हें झिड़ी (Jhiri) से करीब एक किलोमीटर दूर गुड़ा गांव में एक बंजर भूमि दे दी और कहा जो भी उपज होगी, उसका एक चौथाई भाग राज परिवार का होगा। बाबा जी ने उस भूमि को लेना स्वीकार किया। अब इस भूमि का उपजाउ बनाना बाबा जी के लिए सबसे बड़ी समस्या थी। कहते है कि उस समय पजोड़ गांव में गोसाई नाथु राम मेहाता एक साहुकार थे और देख नहीं सकते थे जन्म से ही उनकी आंखों की दृष्टि नहीं थी। उन्होंने बाबा जी की समस्या का भान हुआ तो उन्होंने बाबा जित्तो की सहायता के लिए उन्हें धन दिया और अपने मजदूरों की मदद से उनकी भूमि में एक तालाब बनवाया। नाथु राम से मिली राशि से बाबा जी ने अपनी भूमि को समतल करके उसमें बीज लगाया और उनकी मेहनत से उनकी अच्छी फसल हुई। अपनी फसल की सुरक्षा के लिए बाबा जित्तो खेत में ही रहने लगे। जबकि उनकी बेटी गांव में ही रहती थी। बाबा जी की फसल देख वीर सिंह के मन में लालच आ गया। अब बाबा जी ने अपनी फसल का गेहूं निकाल लिया तो वीर सिंह सिपाहियों के साथ वहां आ धमका और आधी फसल पर अपना अधिकार जताने लगा। इस पर बाबा जी ने उन्हें एक चौथाई फसल देने की उनकी बात का समरण करवाया। लेकिन वीर सिंह, बाबा जी को अपशब्द बोलते हुए सिपाहियों से पूरा गेहूं उठाकर राज महल ले जाने की आज्ञा देकर चला गया। अब जब बाबा जी को लगा कि सिपाही जबरन सारा गेहूं ले जाने लगे है तो उन्होंने क्रोध में आकर अपनी कटार से बोरियों को फाड़ दिया जिससे गेहूं का ढेर लग गया। इस बाबा जी ने मां वैष्णो का ध्यान कर समस्या के समाधान की याचना की तो मां ने उन्हें दर्शन देकर कहा कि इन पापियों को तुम स्वयं आघात कर ढंड दो ताकि उनकी पीढ़ियों तक को ब्रहम हत्या का दंड भोगना पड़े। इस पर इसे मां की आज्ञा मानकर बाबा जी ने खुद के सीने में कटार मार ली। अपने प्राण छोड़ने से पहले बाबा जी बोले लोग अब सारा गेहूं ले जाओ मेरे लहु से इसका स्वाद और भी बढ़ गया है। बाबा जी के देह का त्याग करते ही प्रलय आ गई और इतनी बारिश हुई कि पूरा क्षेत्र जलमग्न हो गया। इसके बाद सिपाहियों ने वीर सिंह को पूरी व्यथा सुनाई तो उन्होंने कहा कि ब्रहम हत्या का कोप कम करने के लिए उनके मृत शरीर को कहीं पर छुपा देना चाहिए। इस पर सपोलिया जाति के एक मल्ली ने वीर सिंह को बाबा जी की देह को चमड़े में लपेट कर झिड़ी में एक सिम्बल के पेड़ के अंदर छुपाने की सलाह दी जिस पर उनके शव को वीर सिंह ने वहीं पर छुपा दिया। लेकिन बाबा जी के कोप से वीर सिंह का घर पहुंचते ही सबकुछ जलकर राख हो गया। उसने मानसिक संतुलन खोकर आत्म हत्या कर ली और उसका वंश भी आगे बाबा जी के कोप से मरने लगा जबकि जिस ने भी वीर सिंह की मदद की थी या उसे सलाह दी थी उन सभी पर बाबा जी का कोप टूटा।
कहते है कि बाबा जी की बेटी गौरी ( बुआ कौड़ी ) जो कि गांव में थी उसे एक भयानक स्वपन आया तो वो रोने लगी। तभी बाबा जी का पालतू कुत्ता गोरी को खींचकर उस स्थान पर ले आया यहां बाबा जी ने प्राण त्यागे थे। वहां पर गेहूं के कुछ दाने बाकी थी बाकी तो पानी में बह गया था। तो गौरी ( बुआ कौड़ी ) जो कि मां वैष्णो देवी का अंश थी ने पिता का पता जानने के लिए उन दानों को उठाया और फैंकते हुए गांव की और बढ़ने लगी तभी रास्ते में पड़ने वाले सिम्बल के पेड़ से जब दाने टकराये तो वो काले हो गए। इस पर गौरी को लगा जरूर इस पेड़ में कुछ है तो वो उसे हिलाने लगी पर उससे वो हिला नहीं पर उसे यह आभास होने लगा कि उसके पिता इसी पेड़ में है। इस पर उन्हें क्रोध आया और उन्होंने जोर से पेड़ को एक पंजा मारा तो पेड़ गिर गया और बाबा जी की देह बेटी के सामने आ गई। इस पर गौरी ( बुआ कौड़ी ) रोने लगी और सोचने लगी अब इनका दाह संस्कार वो अकेली कैसे करेगी। इस पर वो गोसाई नाथु राम के पास जा पहंुची और उनसे पिता के दाह संस्कार में मदद करने को कहा। इस पर गोसाई नाथु राम उस कन्या की उंगली पकड़कर वहां पर आ गए और अंतिम संस्कार की रमस करने से पहले स्नान करने की इच्छा जताई। लेकिन वहां पर पानी नहीं होने पर गौरी ने जमीन में जोर से पांव मारा और वहां से पानी निकाल दिया जिसे बाण गंगा व बहरी नदी भी कहते है। उसने गोसाई नाथु राम को वहां पर स्नान करवाया और उसी पानी के छींटे उनकी आंखों में मारे तो उनकी आंखों की रोशनी वापिस आ गई। इस पर नाथु राम ने बाबा जी के लिए चिता सजाई और उसमें अग्नि देने लगे तो गौरी ने उन्हें ऐसे करने से मना कर दिया और उन्हें मां वैष्णो रूप में दर्शन देकर उन्हें वहां से जाने के लिए कहा। उनके जाते ही गौरी ने इच्छा शक्ति से अग्नि प्रज्जवलित की और पिता की चिता में स्वयं भी कूद गई। जबकि उनका कुत्ता भी उसी अग्नि में कूद गया।
कहते है कि बाबा जित्तो और उनकी पुत्री कौड़ी जो कि बुआ दाती के रूप में वर्णित की जाती है ने देह त्यागने के बाद भी 28 वर्ष तक पैदल चलकर आत्मा रूप में सभी तीर्थ स्थलों का भ्रमण किया और इन 28 वर्षों में उन लोगों को का सबकुछ ताबाह हो गया जिन्होंने बाबा जी के साथ लेश मात्र भी छल किया था। लेकिन उन्हें उनके पापों से मुक्ति नहीं मिल रही थी लेकिन अब वो लोग बाबा जी को कुल देवता और गौरी को बुआ दाती के रूप में मानने लगे पर उनका स्थान न होने कारण वो अपने कष्टों से निजात नहीं पा रहे थे। जबकि बाबा जी के रक्त से सनी गेहूं जिस और गई जिस किसी इंसान या पक्षी ने उसे खाया वो जातर करने लग गए यानि बाबा जी की चौकी करने लगे। लेकिन वो भी बाबा जी के स्थान न हो पाने के कारण अपने कष्टों से मुक्ति नहीं पा रहे थे। कहते है कि 28 वर्ष के भ्रमण के उपरांत बाबा जित्तो और बुआ दाती वापिस उसी स्थान पर आये जहां पर बाबा जी का अंतिम संस्कार किया गया। उस दिन सियालकोट जो कि आजकल पाकिस्तान में है से दो व्यापारी शुद्ध और बुद्ध आये और रात होने पर इसी स्थान पर विश्राम करने लगे। तभी बाबा जित्तो व गौरी उनके सपमें आये और उनसे कहा कि वो उनका मंदिर इसी स्थान पर बनवाये और साथ में एक बावली का निर्माण करवाये। उन्हें मंदिर बनाने के लिए इसी स्थान से धन भी मिल जाएगा। जबकि मंदिर बनने के बाद गोसाई नाथु राम यहां पर पूजा अर्चना कर लोगों के दुख दूर करेंगे। फिर बाबा जी की इच्छा अनुसार व्यापारी शुद्ध और बुद्ध ने उसी स्थान पर उनके मंदिरों का निर्माण करवाया जो आज झिड़ी के नाम से विख्यात है जबकि बाबा जित्तो ने गोसाई नाथु राम को स्वपन्न में आकर कहा कि उनके घर एक बेटा पैदा होगा जिसका नाम वो गौरख रखना। वो जिसे भी छू लेगा उसके कष्ट दूर होंगे। वो अपने मुख से जो बोलेगा वोही सत्य हो जाएगा। मैं उसमें रहकर और उसके बाद तेरे वंशजों में रहकर लोगों के कष्टों को दूर करूंगा। कहते है कि उसी प्रकार बाबा जी के वचनों अनुसार नाथु ने मंदिर में पूजा का कार्यभार संभाला तो उसे एक बेटा हुआ जिसका नाम गौरख रखा गया और वो ठीक उसी प्रकार चमत्कार करने लगा जैसा कि बाबा जित्तो ने बोला था। उस दिन के बाद आज दिन तक गोसाई नाथु राम मेहता का वंश ही मंदिर में पूजा करता है और बाबा जी उनमें प्रवेश करके लोगों के कष्टों को दूर करते है। मंदिर बनने के उपरांत सभी पीड़ितों ने बाबा जी से क्षमा याचना कर उन्हें अपना कुल देवता स्वीकार किया और उनकी पूजा अर्चना शुरू कर दी। ..........
मौजूदा समय में मंदिर का संरक्षण गोसाई शाम लाल मेहता कर रहे है जबकि एक समय ऐसा हुआ कि शाम लाल मेहता के रहते हुए सरकार ने मंदिर का बोर्ड बनाकर उस पर अपना अधिकार कर लिया पर बाबा जी की कृपा से कोर्ट ने सरकार के निर्णय को गलत करार देकर मंदिर का अधिकार वापिस गोसाई परिवार को सोंप दिया।
मौजूदा समय में मंदिर में बाबा जित्तो व बुआ दाती की मूर्तियों के साथ मां वैष्णो देवी सहित अन्य देवी देवताओं की मंर्तियां स्थापित है जबकि मुख्य मंदिर के साथ एक राजा द्वारा बनाई गई बाबा जी की देयरी भी है जिसे आज शीशे वाला मंदिर कहते है। आज भी मुख्य मंदिर के पास मौजूद शिव मंदिर के साथ बावली भी मौजूद है जो निर्मल जल से लोगों के कष्ट दूर कर रही है जबकि मंदिर के सामने चोराहे के पास बाण गंगा भी मौजूद है पर बरसात के कारण इसमें कई प्रकार की जड़ी बूटियां उग आई है। जबकि मंदिर से करीब दो किलोमीटर की दूरी पर आज भी बाबा जी का वो तालाब है जिसे उन्होंने खेत को सींचने के लिए बनाया था जबकि इसी तालाब के पास बाबा जी का एक मंदिर भी बानाया गया है। कहते है कि इस तालाब में स्नान करने से सभी प्रकार के चरम रोगों से मुक्ति मिलती है जबकि तालाब की मिटटी बाहर निकालने से वंष आगे बढ़ता है।
नवंबर माह में आने वाली कार्तिक पूर्णिमा को झिड़ी दरबार व बाबा के तालाब पर बहुत बड़ा मेला लगता है। लाखों की तादाद में देश भर से हर जाति लोग बाबा जी के आगे नत्मस्तक होने आते है। कहते है कि इनमें अधिकतर लोग उन्हीं कुलों से है जिन्होंने बाबा जी के खेत से पैदा हुई गेहूं को खाया था। जबकि बाबा जित्तो को प्रधान कुलदेवता भी माना जाता है क्योंकि कहते है कि जिन लोगों को अपने कुल देवता के बारे में कोई ज्ञान नहीं या उनके कुल देवता लाख जतन करने पर भी उनसे रूष्ट रहते है तो वो लोग बाबा जी के दरबार में आकर हाजिरी लगाये और उनसे कामना करें तो उनके कुल देवता अपने आप शांत हो जाते है वो कभी फिर कुल को कोई परेशानी नहीं देते है। इसलिए इन्हें प्रधान कुलदेवता भी माना जाता है जबकि यहीं कारण है कि कई जातियों की मेल कार्तिक पुर्णिमा पर झिड़ी दरबार में आयोजित की जाती है जबकि हर वर्ष कार्तिक पूर्णिमा के साथ शुरू होने वाला बाबा जी का मेला तीन से लेकर सात दिनों तक चलता है जिसमें प्रशासन द्वारा कई प्रकार के प्रबंध किए जाते है जबकि मंदिर परिसर में गोसाई परिवार द्वारा कई सरायों व लंगर भवनों का निर्माण भी करवाया गया है जहां पर भक्त आकर ठहरते है जलपान करते है। जबकि मंदिर के मुख्य लंगर घर में तो 24 घंटे प्रतिदिन लंगर चलता रहता है। आज भी लोग बाबा जी की जातर करके अपने कुलों का कल्याण करते है जबकि बाबा जित्तो व बुआ दाती आज भी ठीक उसी प्रकार उनकी इच्छा के खिलाफ कार्य करने वालों का सजा देते है और उनकी भक्ति करने वालों को जीवन सुख प्रदान करते है। क्योंकि हाल के ही कुछ वर्षों के कई किस्से ऐसे है जो बाबा जी के इस कथन को प्रमाणित करते है।
अगर अभी तक आप ने बाबा जित्तो व बुआ दाती के दरबार में हाजिरी नहीं लगाई है और जाने के इच्छुक है तो हम आपकों इसके सही रास्ते की जानकारी भी देते है। जम्मू शहर से करीब 22 किलोमीटर की दूरी पर झिड़ी दरबार है। आप जम्मू - अखनूर के निर्माणाधीन मार्ग से होते हुए मिश्रीवाला नामक स्थान पर पहुंचे और वहां से बाय और करीब 4 किलोमीटर आगे चलने पर सामने चौराहे के पास ही विशाल झिड़ी दरबार नजर आएगा। जबकि वापिसी पर चौराहे के पास बहती बाण गंगा को पार करके फिर बायी और का रास्ता पकड़ कर शामे चक्क गांव से होते हुए करीब दो किलोमीटर बाद बाबा जी का पवित्र तालाब स्थित है।
2 टिप्पणियाँ
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बुआ दाती के अन्य स्वरूपों का वर्णन नही किया गया
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